Natasha

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लेखनी कहानी -27-Jan-2023

उसी जगह मैं धम से बैठ गया और घड़ी खोलकर उस कागज को मैंने अपनी ऑंखों के सामने रखा। उसमें जो कुछ लिखा था, इतने समय बाद, यद्यपि वह सब याद नहीं रहा है फिर भी बहुत-सी बातें याद कर सकता हूँ- लिखा था, “श्रीकान्त, जाते समय मैं तुम लोगों को आशीर्वाद दिए जाती हूँ। केवल आज ही नहीं, जितने दिन जीऊँगी तुम्हें आशीर्वाद देती रहूँगी। किन्तु मेरे लिए तुम दु:ख मत करना। इन्द्रनाथ मुझे ढूँढ़ता फिरेगा, यह मैं जानती हूँ; किन्तु तुम उसे समझाकर रोकना। मेरी सब बातें तुम आज ही नहीं समझ सकोगे; किन्तु, बड़े होने पर एक दिन अवश्य समझोगे, इस आशा से यह पत्र लिखे जा रही हूँ। अपनी कहानी अपने ही मुँह से तुमसे कह जा सकती थी, परन्तु, न जाने क्यों, नहीं कह सकी; कहूँ-कहूँ सोचते हुए भी न जाने क्यों चुप रह गयी। परन्तु, यदि आज न कह सकी तो फिर कभी कहने का मौका न मिलेगा।


“मेरी कहानी सिर्फ मेरी कहानी ही नहीं है भाई- मेरे स्वामी की कहानी भी है। और फिर, वह भी कुछ अच्छी कहानी नहीं है। मेरे इस जन्म के पाप कितने हैं, सो तो मैं नहीं जानती; किन्तु पूर्व जन्म के संचित पापों की कोई सीमा-परिसीमा नहीं, इसमें जरा भी सन्देह नहीं। इसीलिए, जब-जब मैंने कहना चाहा है तब-तब मेरे मन में यही आया है कि स्त्री होकर, अपने मुँह से, पति की निन्दा करके, उस पाप के बोझ को और भी भाराक्रान्त नहीं करूँगी। किन्तु, अब वे परलोक चले गये। और परलोक चले गये इसलिए उसके कहने में कोई दोष नहीं है, यह मैं नहीं मानती। फिर भी, न जाने क्यों, अपनी इस अन्तविहीन दु:ख-कथा को तुम्हें जनाए बगैर, मैं किसी तरह भी विदा लेने में समर्थ नहीं हो रही हूँ।

“श्रीकान्त, तुम्हारी इस दु:खिनी जीजी का नाम अन्नदा है। पति का नाम क्यों छिपा रही हूँ, इसका कारण, इस लेख को, शेष पर्यन्त पढ़ने के बाद, मालूम होगा।

“मेरे पिता बड़े आदमी हैं। उनके कोई लड़का नहीं है। हम सिर्फ दो बहनें थीं। इसीलिए, मेरे पिता ने मेरे पति को एक दरिद्र के घर से लाकर, अपने पास रखकर, पढ़ा-लिखाकर 'आदमी' बनाना चाहा था। वे उन्हें पढ़ा-लिखा तो अवश्य सके, किन्तु 'आदमी' नहीं बना सके। मेरी बड़ी बहन विधवा होकर घर ही रहती थी- उसी की हत्या करके वे एक दिन लापता हो गये। यह दुष्ट कर्म उन्होंने क्यों किया, इसका हेतु, तुम अभी बच्चे हो, इसलिए न समझ सकोगे, फिर भी किसी दिन जान लोगे। पर कहो तो श्रीकान्त, यह दु:ख कितना बड़ा है? यह लज्जा कितनी मर्मान्तिक है? फिर भी तुम्हारी जीजी ने सब कुछ सह लिया। किन्तु पति बनकर जिस अपमान की अग्नि को उन्होंने अपनी स्त्री के हृदय में जला दिया था उस ज्वाला को तुम्हारी जीजी आज तक भी बुझा नहीं सकी। पर जाने दो उस बात को-

“उक्त घटना के सात वर्ष के बाद मैं उन्हें फिर देख पाई। जिस वेश में तुमनें उन्हें देखा था उसी वेश में वे हमारे घर के सामने साँप का खेल दिखा रहे थे। उन्हें और कोई तो नहीं पहिचान सका, किन्तु मैंने पहिचान लिया। मेरी ऑंखों को वे धोखा नहीं दे सके। सुना है कि यह दु:साहस उन्होंने मेरे लिए ही किया था। परन्तु यह झूठ है! फिर भी, एक दिन गहरी रात में, खिड़की का द्वार खोलकर मैंने पति के लिए ही गृह-त्याग कर दिया। किन्तु सबने यही सुना, यही जाना कि अन्नदा कुल को कलंक लगाकर घर से निकल गयी।

“यह कलंक का बोझा मुझे हमेशा ही अपने ऊपर लादे फिरना होगा। कोई उपाय नहीं है क्योंकि, पति के जीवित रहते तो अपने आपको प्रकट नहीं कर सकी-पिता को पहचानती थी; वे कभी, किसी तरह भी, अपनी संतान की हत्या करने वाले को क्षमा नहीं कर सकते। किन्तु आज यद्यपि वह भय नहीं है- आज जाकर यह सब हाल उनसे कह सकती हूँ, किन्तु इस पर, इतने दिनों बाद, कौन विश्वास करेगा? इसलिए पितृ-गृह में मेरे लिए अब कोई स्थान नहीं है। और फिर, अब मैं मुसलमानिन हूँ।

“यहाँ पर जो पति का कर्ज था वह सब चुक गया है। मैंने अपने पास सोने की दो बालियाँ छिपाकर रख छोड़ी थीं, उन्हें आज बेच दिया है। तुम जो पाँच रुपये एक दिन रख गये थे उन्हें मैंने खर्च नहीं किया। बड़े रास्ते के मोड़ पर जो मोदी की दुकान है, उसके मालिक के पास उन्हें रख दिया है- माँगते ही वे तुम्हें मिल जाँयगे। मन में दु:ख मत करना भइया! ये रुपये तो अवश्य मैंने लौटा दिए हैं, किन्तु तुम्हारे उस कच्चे कोमल छाटे-से हृदय को मैं अपने हृदय में रखे लिए जाती हूँ। और तुम्हारी जीजी का यह एक आदेश है श्रीकान्त, कि तुम लोग मेरी याद करके अपना मन खराब न करना। समझ लेना कि तुम्हारी जीजी जहाँ कहीं भी रहेगी अच्छी ही रहेगी। क्योंकि दु:ख सहन करते-करते उसकी यह दशा हो गयी है, कि उसके शरीर पर अब किसी भी दु:ख का असर नहीं होता। किसी तरह भी उसे व्यथा नहीं पहुँच सकती। मेरे दोनों भाइयों, तुम्हें मैं क्या कहकर आशीर्वाद दूँ, सो मैं ढूँढकर भी नहीं पा सकती हूँ। इसीलिए, केवल यही कहे जाती हूँ कि, भगवान-यदि पतिव्रता स्त्री की बात रखते हैं तो, वे तुम लोगों की मैत्री चिरकाल के लिए अक्षय करेंगे। -तुम्हारी जीजी, अन्नदा।”

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